पालीहाउस में खीरा उत्पादन की वैज्ञानिक तकनीक

फसलोत्पादन में पाली हाउस का उपयोग पिछले एक दशक से अनेक देशो में किया जा रहा है एवं इसके प्रयोग से अधिक लाभ भी प्राप्त हो रहा है ! पाली हाउस की स्थापना एवं सञ्चालन में अधिक लागत लगती हैं , किन्तु उच्च मूल्य की फसलों को पाली हाउस में मनचाहा वातावरण उत्पनं कर पैदा करने में आमदनी अधिक होती है! इशलिये पालीहाउस में पुरे वर्ष भर खीरे की खेती को अधिक वरीयता दी जाती है ! चुकी खीरा एक पर-परागित फसल है , जिसमें घरेलु मखियो द्वारा परागण किया जाता है ! परागण की समस्याओ को देखते हुए खीरे की उपयुक्त एवं संस्तुत प्रजतयो की खेती पालीहाउस में करना अधिक लाभप्रद है ! पर्थेनोकार्पिक प्रजाति में केवल मादा फूल आते है , पर्थेनोकार्पिक प्रजाति में फल दूसरे नोड से लगना शुरू हो जाते हैं ; जबकि सामान्य प्रजाति में तीसरे नोड में शुरू होतें हैं! इसलिए पर्थेनोकार्पिक प्रजातियों के उत्पादन से चार गुना अधिक होता है !
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खीरे की नवीन एवं प्रभावी किस्म से उत्पादन के लिए सूछ्म जलवायु का नियंत्रण आवश्यक है ! पालीहाउस में सामन्यतः दिन का तापमान रात्रि के तापमान से 5-7 से. ग्रे. अधिक होता है ! वायु में कार्बनडाईआक्साइड की मात्रा 250 पी.पी.एम. से अधिक हो तो उत्पादकता बढ़ जाती है! पालीहाउस में वायु की सापेछिक आद्रता 80 प्रतिशत से अधिक हो तो फफूंद द्वारा विधियां फ़ैल जाती हैं ! अतः पौधे संवर्धन के लिए 90 प्रतिशत नमी एवं फल उत्पादन के लिए आद्रता सामान्यतः 60-80 प्रतिशत तक होनी चाहिए। पालीहाउस में जलवायु नियंत्रण को संतुलित करने के लिए बहुत अधिक ऊर्जा की आवश्य्कता होती है।
पौधे तैयार करना :- पौध तैयार करने के लिए 50 छिद्रो वाली प्रो-ट्रे इस्तेमाल करते हैं। प्रो-ट्रे में भरने वाले मिश्रण जैसे कोकोपीट , परलाइट एवं वर्मीकम्पोस्ट का इस्तेमाल करते हैं। कोकोपीट , परलाइट एवं वर्मीकम्पोस्ट की बराबर मात्रा को अच्छी तरह मिलाकर प्रो-ट्रे में भर लेते हैं और सभी छिद्रो में एक-एक बीज बोने के उपरान्त 3-4 दिन के अंदर अंकुरण हो जाता हैं एवं पौधे 20-25 दिनों में रोपण हेतु तैयार हो जाते हैं।
वानस्पतिक विवरण :- खीरा एक वर्षीय लता हैं। मूलतः यह एकलिंगी होता हैं जिसमे नर एवं मादा फूल एक ही पौधे पर अलग-अलग जगह पर लगते हैं। नरफुल जल्दी गुच्छे में तथा पुष्पवृंत पर उत्पन्न होते हैं ; जबकि मादा फूल देरी से एवं लम्बें पुष्पवृंत पर उत्पन्न होते है। पालीहाउस में मधुमखियों के रख-रखाव में आने वाली अधिक कठिनाइयों तथा कीटनाशको के प्रभाव से उनके बचाव हेतुं खीरे की पार्थेनोकार्पिक प्रजाति ही लगाते हैं , क्योकि इसमें केवल मादा फूल ही पुष्पवृंत पर लगते हैं।
भूमि की तैयारी :- मिटटी की गहरी गुड़ाई कर उसे भुरभुरा कर लेना चाहिए। इसके पश्चात 3-4 किग्रा प्रति वर्गमीटर गोबर की सड़ी खाद 10 ग्राम क्लोरपाइरीफाश तथा 5 ग्राम सूछ्म तत्वों का मिश्रण (ज़िंक ,ताम्बा,लोहा, बोरान,मैगनीज तथा मालिब्डीनम) का प्रयोग किया जाता है। इसके अलावा 7 ग्राम नायट्रोजन , 4 ग्राम फास्फोरस एवं 5 ग्राम पोटाश प्रति वर्ग मीटर की दर से मिलते हैं।
पलवार (मल्च) का प्रयोग :- बेड बनाते समय 100 माइक्रॉन मोटी प्लास्टिक (पालीथीन) की पलवार का प्रयोग लाभप्रद होता है क्योकि इससे खर-पतवार का कुप्रभाव फसल के ऊपर नहीं पड़ता हैं। पलवार के प्रयोग से जल संरछण होने के कारण खेत में नमी लम्बे समय तक बनी रहती है।
सिचाई तथा उर्वरक :- हरितगृह में खीरे की सिचाई ड्रिप के माध्यम से करतें हैं , जिसमें दो लीटर प्रति घंटा का ड्रिपर लगाते हैं , जो एक घंटे में दो लीटर पानी प्रति पौधे, जड़ छेत्र में देता हैं। पोधो को प्रतिदिन 2-3 लीटर पानी की आवस्य्क्ता होती हैं। खीरे में नमी 90 प्रतिशत होनी चाहिए, इसलिए स्प्रीकलर अथवा फागर द्वारा दिन में दो से तीन बार पानी का छिड़काव करना चाहिए। सिचाई के साथ उर्वरक फर्टिगेशन प्रणाली द्वारा दिए जाते हैं। 10-12 दिन के अंतराल पर घुलनशील एन.पी.के. (19:19:19) उर्वरक 2.8 ग्राम प्रति वर्गमीटर की दर से देना चाहिए । सूछ्म पोषक तत्वों के मिश्रण को 0.3 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए।
पार्थेनोकार्पिक प्रजाति - कियान एवं इसाटिस
बुवाई का समय :- सामन्यतः पालीहाउस में पार्थेनोकार्पिक प्रजाति की खेती वर्ष भर की जा सकती हैं , परन्तु उत्तर भारत में अधिक लाभ हेतुं बेमौसमी फसल उगाने के लिए अक्टूबर में बोई गयी फसल क्रमश दिसंबर से फरवरी तथा फरवरी में बोई गयी फसल अप्रैल से जून माह में उत्पादन दे जिससे अधिकतम लाभ प्राप्त हो।
बीज दर :- पाटेनोकार्पिक प्रजाति के बीज बाजार में संख्या के आधार पर उपलब्ध होते हैं। दर रूपये 3.00 प्रति पौधा प्रति वर्ग मीटर की दर से लगभग 40,000 बीज प्रति हेक्टेयर की आवस्य्क्ता होती हैं।
रोपण विधि :- खीरा के लिए एक मीटर चोडे एवं 15 सेंटीमीटर उचाई वाले बेड बनातें हैं। उसके उपरांत उसपर ड्रिप लाइन एवं काली प्लास्टिक की पलवार बिचाटें हैं। पलवार बिछाने के उपरांत 60-45 सेंटीमीटर की दुरी पर छेद काट कर एक-एक पौधे की बुवाई करतें हैं। बुवाई के 10-15 दिनों तक पोधो की सिचाई हज़ारे की सहायता से तब तक करतें हैं , जब तक पौधा सही ढंग से स्थापित न हो जाये।
पौधो को सहारा देना :- खीरा एक लता वाली फसल है जिसको सहारा देने हेतु मचान बनाते हैं और प्लास्टिक या सुटली की सहायता से पौधे को ऊपर की ओर बांधते हैं। पौधे की उचाई बढ़ने के साथ सुटली को ढीला कर देना चाहिए जिससे पौधे के फलन छत्र में आसानी हो सके।

तुड़ाई एवं उपज :- पार्थेनोकार्पिक प्रजाति के फल दूसरे नोड से लगते हैं। पौधे लगने के 40-50 दिन उपरांत तोड़ने हेतु तैयार हो जातें हैं। फलो की तुड़ाई 3-4 दिनों के अंतराल पर करना चाहिए। फलो की तुड़ाई के उपरांत इन्हे सावधनीपूर्वक प्लास्टिक की क्रेट में रखकर बाजार में भेजा जाता हैं। पालीहाउस में खीरे की उपज 3-4 किलो ग्राम प्रति वर्ग मीटर (300-400 टन प्रति हेक्टयर) होती हैं। हर पौधा लगभग 1-1.5 किलोग्राम फल देता हैं।
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3 comments
Click here for commentsNice topic
Replyबहुत ही सुंदर जानकारी
ReplyAtisundar
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