राई / सरसो की खेती
खेत की तैयारी:- खेत की पहली जुताई मिटटी पलटने वाले हल से करने के बाद पाटा लगाकर खेत को भुरभुरा बना लेना चाहिए। यदि खेत में नमी कम हो तो पलेवा करके तैयार करना चाहिए। ट्रैक्टर चालित रोटावेटर द्धारा एक ही बार में अच्छी तैयारी हो जाती हैं।
उन्नतशील प्रजातियाँ:- सिंचित क्षेत्र :- नरेन्द्र अगेती राई-4, वरुणा (टी-59), बंसती (पिली), रोहिणी, माया, उर्वशी, नरेन्द्र स्वर्णा-राई-8 (पीली), नरेन्द्र राई एन.डी.आर.- 8501, कान्ती।
असिंचित क्षेत्रों के लिए प्रजातियाँ:- बैभव, वरुणा (टा-59)
विलम्ब से बुआई के लिए प्रजातियाँ:- आशीर्वाद, वरदान
क्षारीय / लवणीय भूमि हेतु:- नरेन्द्र राई, सी. एस.-52, सी. एस.-54
बीज दर:- सिंचित एवं असिंचित क्षेत्रों में 5-6 किलोग्राम/हेक्टेयर की दर से प्रयोग करना चाहिए।
बीज शोधन:- बीज जनित रोगों से सुरक्षा हेतु 2.5 ग्राम थीरम प्रति किलो की दर से बीज को उपचारित करके बोये। मैटलाकिसल 1.5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज शोधन करने से सफेद गेरुई एवं तुलासिता रोग की प्रारम्भिक अवस्था में रोकथाम हो जाती हैं।
बुआई का समय एवं विधि:- राई बोने का उपयुक्त समय बुन्देलखण्ड एवं आगरा मण्डल में सितमबर के अन्तिम सप्ताह तथा शेष क्षेत्रों में अक्टूबर का प्रथम पखवारा हैं। बुआई देशी हल के पीछे उथले 4-5 सेन्टीमीटर गहरे कूड़ों में 45 सेन्टीमीटर की दुरी पर करना चाहिए।
बुआई के बाद बीज ढकने के लिए हल्का पाटा लगा देना चाहिए। असिंचित दशा में बुआई का उपयुक्त समय सितम्बर का द्धितीय पखवारा हैं। विलम्ब से बुआई करने पर माहुं का प्रकोप एवं अन्य कीटों एवं विमारियों की सम्भावना अधिक रहती हैं।
उर्वरक की मात्रा:- उर्वरकों का प्रयोग मिटटी परीक्षण की संस्तुतियों के आधार पर किया जाये। सिंचित क्षेत्रों में नत्रजन 120 किलोग्राम, फास्फेट 60 किलोग्राम एवं पोटाश 60 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग करने से अच्छी उपज प्राप्त होती हैं। फास्फोरस का प्रयोग सिंगल सुपर फास्फेट के रूप में अधिक लाभदायक होता हैं, क्योकि इससे सल्फर उपलब्धता भी हो जाती हैं। यदि सुपर फास्फेट का न किया जाय तो 40 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से गन्धक का प्रयोग करें।
सिंचाई:- राई, नमी की कमी के प्रति फूल आने के समय तथा दाना भरने की अवस्थाओं में विशेष संवेदनशील होती हैं। अतः अच्छी उपज प्राप्त करने के लिए इन अवस्थाओं में सिंचाई करें।
फसल सुरक्षा:- राई की फसल पर लगने वाले किट व रोग निम्नलिखित हैं :
झुलसा रोग की पहचान:- इस रोग में पत्तियों तथा फलियों पर गहरे कत्थई रंग के धब्बे बनते हैं, जिससे गोल-गोल छल्ले केवल पत्तियों पर स्पष्ट दिखाई देते हैं। इनके उपचार के लिए निम्न में से किसी एक रसायन का प्रयोग 600-750 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें।
मैंकोजेब - 75 प्रतिशत डब्लू. पी.
2.0 किलोग्राम / हे.
कॉपर आक्सीक्लोराइड - 50 प्रतिशत डब्लू. पी.
3.0 किलोग्राम / हे.
600-700 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए।
सरसों की आरा मक्खी:- यह काले चमकदार रंग की घरेलु मक्खी से आकार में छोटी 4-5 मिमी लम्बी मक्खी होती हैं।
मादा मक्खी का अण्डरोपक आरी के आकार के होने के कारण ही इसे आरा मक्खी कहतें हैं। इस किट की सुडियाँ काले स्लेटी रंग की होती हैं। ये पत्तियों को किनारों से अथवा विभिन्न आकार के छेद बनाती हुई बहुत तेजी से खाती हैं। भयंकर प्रकोप की दशा में पूरा पौधा पत्ती विहीन हो जाता हैं।
बालदार सुडी:- यह काले एवं नारंगी रंग की काले सिर वाली सुंडी होती है। इसका पूरा शरीर घने काले बालों से ढका होता हैं। इसकी सूंडियां ही फसल को नुकसान पहुँचती हैं।
यह प्रारम्भ में झुण्ड में तथा बाद में एकल रूप में पौधो की कोमल पत्तियों को खाकर नुकसान पहुँचाती हैं।
आरा मक्खी एवं बालदार सूंडी के उपचार के लिए मैलाथियान 5 प्रतिशत धूल 20-25 किलोग्राम या मैलाथियान 50 ई.सी. 1.5 लीटर या डी. डी.वी.पी. 76 ई. सी. 0.5 लीटर 700-800 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें।
माहू कीट:- यह पंखहीन अथवा पंखयुक्त हल्के स्लेटी या हरे रंग के 1.5-3.0 मिमी लम्बे चुसने मुखांग बाले छोटे किट होतें हैं। इस किट के शिशु एवं प्रौढ़ पौधों के कोमल तनों, पत्तियों, फूलों एवं फलियों से रस चूसकर उसे कमजोर एवं क्षतिग्रस्त तो करतें ही हैं साथ ही साथ रस चूसते समय पत्तियों पर मधुस्राव भी करते हैं। इस मधुश्राव पर काले कवक का प्रकोप हो जाता हैं तथा प्रकाश संश्लेषण की क्रिया बाधित हो जाती हैं। इस किट का प्रकोप दिसम्बर-जनवरी से लेकर मार्च तक बना रहता हैं।
इसकी रोकथाम के लिए निम्नलिखित कीटनाशियों में से किसी एक को उनके सामने लिखित मात्रा को प्रति हेक्टेयर की दर से 700-800 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव सायंकाल करना चाहिए।
1) डाइमेथोएट 30 ई. सी. 1 लीटर या
2) मिथाइल-ओ-डेमेटान 25 ई.सी. 1 लीटर
कटाई-मड़ाई:- जब 75 प्रतिशत फलियां सुनहरें रंग की जायें फसल को काटकर, सुखाकर एवं मड़ाई करके बीज को अलग करना चाहिए। देर करने से बीजों के झड़ने की आशंका रहती हैं। बीज को खूब सुखाकर ही भण्डारण करना चाहिए।
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