धान के फसल में रोगों से बचाव
Prevention of Diseases in Paddy Crop
भा रत में धान की खेती बड़े पैमाने पर की जाती है। यह प्रमुख खाद्यान्न खरीफ फसल है. यह अधिक पानी वाली फसल है. हालांकि अब धान की कुछ ऐसी प्रजातियां और ऐसी तकनीकियां भी आ गई हैं, जिन में अधिक पानी की जरूरत नहीं होती।
धान की खेती भारत के कई राज्यों में होती है. हरियाणा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, पंजाब, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में धान उगाया जाता है। वैसे, मक्का के बाद धान ही सब से ज्यादा पैदा होने वाला अनाज है।
धान की अच्छी पैदावार के लिए सब से पहले रोगों की पहचान कर उन से बचाव ही बेहतर उपाय है. रोगों का फैलाव तापमान और अन्य जलवायु संबंधी कारकों पर निर्भर करता है. साथ ही, सस्य क्रियाओं का भी असर पड़ता है. यही वजह है किउपज में काफी कमी देखी जाती है।
धान किसान अच्छी पैदावार लेने के लिए रोग के लक्षणों को पहचानें, समझें और उचित उपाय कर होने वाले नुकसान को रोकें, तभी वे सुनिश्चित पैदावार ले सकेंगे और अपनी आमदनी में इजाफा कर सकेंगे।
यह रोग हेल्मिन्थोस्पोरियम ओराइजी कवक द्वारा होता है. इस रोग के कारण पत्तियों पर गोलाकार भूरे रंग के धब्बे बन जाते हैं। पौधों की बढ़वार कम होती है, दाने भी प्रभावित हो जाते हैं जिस से उन की अंकुरण क्षमता पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है।
पत्तियों पर धब्बे आकार व माप में बहुत छोटे बिंदी से ले कर गोल आकार के होते हैं। पत्तियों पर ये काफी बिखरे रहते हैं छोटा धा गाढ़ा भूरा या बैगनी रंग का होता है बड़े पत्रों के किनारे गहरे भूरे रंग के होते हैं और बीच का भाग पीलापन लिए गंदा सफेद या धूसर रंग का हो जाता है। धब्बे आपस में मिल कर बड़े हो जाते हैं और पत्तियों को सुखा देते हैं।
• उर्वरकों विशेषकर नाइट्रोजन की संस्तुत मात्रा का ही प्रयोग करना चाहिए, क्योंकि नाइट्रोजन की अधिक मात्रा देने से रोग का प्रकोप बढ़ता है।
● बीजों को धीरम और कार्बडाजिम (2:1) की 3 ग्राम दवा प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित कर के बोना चाहिए।
● फसल पर रोग के लक्षण दिखाई देने पर मैंकोजेब 63 फीसदी (कार्बडाजिम 12 फीसदी) की 750 ग्राम प्रति हेक्टेयर छिड़काव 10-12 दिनों के अंतराल पर करना चाहिए।
यह रोग मिट्टी में जस्ते की कमी के कारण होता है। इस में पत्तियों पर हलके पीले रंग के धब्बे बनते हैं, जो बाद में कत्थई रंग के हो जाते हैं।
इस रोग के लक्षण पौधशाला में और रोपाई के 2-3 हफ्ते के अंदर छोटेछोटे टुकड़ों में दिखते हैं। रोगग्रस्त पौधा छोटा रह जाता है। निचली सतह पर कत्थई रंग के धब्बे बनते हैं, जो एकदूसरे से मिल कर पूरी पत्नी को सुखा देते हैं।
रोगग्रस्त पौधों की जड़ों की वृद्धि रुक जाती है. ऐसे पौधों में छोटीछोटी कमजोर बालियां निकलती हैं। उपज में कमी रोग की व्यापकता पर निर्भर करती है।
खेत में तैयारी के समय 25 किलोग्राम जिंक सल्फेट प्रति हेक्टेयर की दर से मिला देना चाहिए।
● फसल पर 5 किलोग्राम जिंक सल्फेट और ढाई किलोग्राम बुझे चूने का 1,000 लिटर पानी में घोल बना कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए, पौधशाला में जिंक के 2 छिड़काव बोआई के 10 दिन बाद और 20 दिन बाद जरूर करना चाहिए, बुझे हुए चुने के स्थान पर 20 किलोग्राम यूरिया प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग किया जा सकता है।
• पौधे की जड़ों को रोपाई करने से पहले 2 फीसदी जिंक ऑक्साइड घोल में तकरीबन 1 से 2 मिनट तक के लिए डुबोना चाहिए।
यह रोग पिरीकुलेरिया ओराइजी नामक कवक द्वारा होता है। इस रोग के लक्षण सब से पहले पत्तियों पर दिखाई देते हैं, परंतु इस का आक्रमण पर्णच्छद, पुष्पक्रम, गांठों और दानों के छिलकों पर भी होता है पत्तियों पर आंख की आकृति के छोटे, नीले धब्बे बनते हैं, जो बीच में राख के रंग के और किनारे पर गहरे भूरे रंग के होते हैं। वे बाद में बढ़ कर आपस में मिल जाते हैं, जिस के चलते पत्तियां झुलस कर सूख जाती हैं। तनों की गांठें पूरी तरह से या उन का कुछ भाग काला पड़ जाता है।
• झोंका अवरोधी प्रजातियां जैसे नरेंद्र- 118, नरेंद्र-97, पंत धान-6, पंत धान- 11, सरजू-52, वीएल धान-81 आदि रोग रोधी किस्मों का प्रयोग करें.
• इस रोग के नियंत्रण के लिए बोआई से पहले बीज को ट्राईसाइक्लैजोल 2 ग्राम या धीरम और काबेंडाजिम (2:1) की 3 ग्राम मात्रा प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें।
• रोग के लक्षण दिखाई देने पर 10-12 दिन के अंतराल पर या बाली निकलते समय 2 बार जरूरत के मुताबिक कार्बडाजिम 50 प्रतिशत घुलनशील धूल की 1 किलोग्राम मात्रा को 700-800 लिटर पानी में घोल कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करना चाहिए।
● रोग का अधिक प्रकोप होने की दशा में ट्राईसाइक्लैजोल की 350 ग्राम मात्रा को 700-800 लिटर पानी में घोल बना कर प्रति हेक्टेयर की दर से छिड़काव करें, साथ ही, स्टीकर/ सरफेक्टेंट 500 मिलीलिटर प्रति हेक्टेयर मिलाएं।
फसल में लगने वाला रोग क्लेविसेप्स यह ओराइजीसैटावी नामक कवक द्वारा होता है। रोग के लक्षण पौधों में बालियों के निकलने के बाद ही स्पष्ट होते हैं। रोगग्रस्त दानों के अंदर कवक अंडाशय को एक बड़े कूटरूप में बदल देता है, जो पहले पीले रंग का और बाद में जैतूनीहरा आकार में धान के दानों से दोगुने से भी बड़ा हो जाता है।
इस पर बहुत अधिक संख्या में बीजाणु चूर्ण के रूप में मौजूद होते हैं। उपज में हानि केवल रोगग्रस्त दानों से ही नहीं, बल्कि इस के ऊपर और नीचे के स्पाइकिकाओं में दाने न पड़ने से भी होती है।
फसल कटाई से पहले ग्रसित पौधों को सावधानी से काट कर अलग कर लें और जला दें। गरमी में खेत की जुताई करने से रोगजनक के स्क्लेरोशिया नष्ट किए जा सकते हैं।
• रोगी खेत से बीज नहीं लेना चाहिए, रोगी दानों को कटाई से पहले अलग कर लेना चाहिए या रोगी पौधों को उखाड़ कर जला देना चाहिए।
• बीजोपचार कार्बडाजिम व थिरम मिश्रण की 2.5 ग्राम से प्रति किलोग्राम बीज के अनुसार करें।
• जिन क्षेत्रों में यह रोग अधिक लगता है, उन क्षेत्रों में पुष्पन के दौरान कवकनाशी रसायन जैसे प्रोपीकोनाजाल (टिल्ट) की 1 मिलीलिटर या क्लोरोथेलोनिल (कवच ) 2 ग्राम प्रति लिटर की दर से पहला छिड़काव बाली निकलने के दौरान और दूसरा छिड़काव जब बाली पूरी तरह से निकल आई हो, करने से रोग की रोकथाम की जा सकती है।
मुख्य रूप से यह पत्तियों का रोग हैं। शुरुआत में पीले या पुआल के रंग के लहरदार धब्बे पत्ती के एक या दोनों किनारों के सिरे से प्रारंभ हो कर नीचे की ओर बढ़ते हैं।
ये धारियां शिराओं से घिरी रहती हैं और पीली या नारंगी कत्थई रंग की हो जाती हैं। मोती की तरह छोटेछोटे पौधे से गेरूआ रंग के जीवाणु पदार्थ धारियों पर पाए जाते हैं, जो पत्तियों की दोनों सतह पर होते हैं कई धारियां आपस में मिल कर बड़े धब्बे का रूप ले लेती हैं। इस वजह से पत्तियां समय से पहले ही सूख जाती हैं। रोग के उग्र अवस्था में ग्रस्त पौधे पूरी तरह से मर जाते हैं।
• रोग सहिष्णु किस्में जैसे, नरेंद्र पंत-359, पंत धान 4, पंत धान 10 और मन्हर आदि उगाएं।
• खेत से अतिरिक्त पानी समयसमय पर निकालते रहे और नाइट्रोजन प्रधान उर्वरकों का इस्तेमाल मात्रा से अधिक नहीं करना चाहिए।
• बोने से पहले बीज को स्ट्रेप्टोमाइसीन के 100 पीवीएम घोल मैंकोजेब 63 फीसदी (कार्बडाजिम 12 फीसदी) की 2.5 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज से बीजोपचार कर लेना चाहिए।
• फसल पर रोग के लक्षण दिखाई देने पर स्ट्रेप्टोमाइसीन 15 ग्राम और मैंकोजेब 63 फीसदी (कार्बडाजिम 12 फीसदी) की 750 ग्राम प्रति हेक्टेयर छिड़काव 10-12 दिनों के अंतराल पर करना चाहिए।
इस रोग के लक्षण मुख्यतः पत्तियों और पर्णच्छद पर दिखाई देते हैं. पत्ती की सतह से ऊपर 1 सैंटीमीटर लंबे गोल या अंडाकार हरे पुआल के रंग या मटमैले धब्बे इस रोग में दिखाई हैं, जो बाद में बढ़ कर 2-3 सेंटीमीटर लंबे और 1 सेंटीमीटर चौड़े, अनियमित आकार के क्षतस्थल बना देते हैं. क्षतस्थल बाद में बढ़ कर तने को चारों ओर से घेर लेते हैं।
अनुकूल परिस्थितियों में फफूंद छोटेछोटे भूरे व काले रंग के दाने पत्तियों की सतह पर पैदा करता है, जिन्हें स्क्लेरोशिया कहते हैं. ये स्क्लेरोशिया हलका झटका लगने पर नीचे गिर जाते हैं।
फसल काटने के बाद अवशेषों को जला दें, खेतों में अधिक जल भराव नहीं करना चाहिए।
• रोग की रोकथाम करने के लिए मैंकोजेब कावंडाजिम का मिश्रण 2.5 ग्राम और प्रोपेकोनाजोल 1 मिलीलिटर या फिर हेक्साकोनेजोल 2 मिलीलिटर प्रति लिटर पानी की दर से घोल बना कर 15 दिन के अंतर पर छिड़काव करना चाहिए, पहले छिड़काव रोग दिखाई देते ही और दूसरा छिड़काव 15 दिन बाद करना चाहिए।
यह रोग जापान में सब से पहले देखा गया। बकनी एक जापानी शब्द है जिस का मतलब मुखी पौधे से है।
इस रोग से पौधशाला में पौधे पीले, पतले और अन्य स्वस्थ पौधों के विपरीत काफी लंबे हो जाते हैं। इस अवस्था में पौधे सूख कर मर जाते हैं। रोग से ग्रस्त रोषित पौधे भी इसी प्रकार के लक्षण प्रदर्शित करते हैं।
• प्रभावित पौधों को खेत से सावधानी से उखाड़ कर नष्ट कर देना चाहिए।
• रोगी खेत से बीज का चुनाव नहीं करना चाहिए।
• बीजों को बोआई से पहले ट्राइकोडमां 5 ग्राम या 2.5 ग्राम कार्बडाजिम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करना चाहिए।
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