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How to manage organic farming?

जैविक खेती प्रबन्धन कैसे करें ?
 
Organic Farming Management 
 
                                         जैविक खेती प्रबन्धन कैसे करें ?   Organic Farming Management

जैविक खेती प्रबन्धन एक ऐसा समन्विन्त मार्ग हैं जहाँ खेती के समस्त अवयवों की प्रणाली परस्पर एक-दूसरे से संबंद्ध होती हैं तथा एक-दूसरे के लिए कार्य करती हैं। जैविक रूप से स्वस्थ एवं सक्रिय भूमि फसल पोषण की स्त्रोत हैं तथा खेत की जैव विधतता द्धारा नाशी जीव नियंत्रण होता हैं। फसल चक्र तथा बहु फसलीय कृषि प्रणाली, मृदा स्वास्थ्य के स्त्रोतों को बनाये रखते हैं। पशुधन समन्वयक, उत्पादकता तथा स्थायित्व सुनिश्चित करता हैं। जैविक प्रबंधन स्थानीय स्त्रोतों के अधिकतम उपयोग तथा उत्पादक पर बल देता हैं। 
 
Organic farming management is a coordinated route where the system of all components of farming are interconnected and work for each other. Biologically healthy and active land crops are the source of nutrition and the bio-viability of the field is controlled by the destructive organism. The crop cycle and multi-crop farming system maintain the sources of soil health. Livestock coordinators ensure productivity and stability. Biological management emphasizes optimum utilization of local resources and producers.

महत्वपूर्ण बिन्दु 
  • मृदा की समृद्धिशीलता 
  • तापक्रम प्रबन्धन 
  • वर्षा जल का संधारण 
  • सौर ऊर्जा का अधिकतम उपयोग 
  • प्राकृतिक चक्र एवं जीव स्वरूपों की सुरक्षा 
  • पशुओं का समन्वय तथा पशु शक्ति व स्थानीय स्त्रोतों पर अधिकाधिक निर्भरता 

Critical Point
  • Soil richness
  • Temperature management
  • Maintenance of rain water
  • Maximum Use of Solar Energy
  • Protection of natural cycles and organisms
  • Coordination of animals and greater dependence on animal power and local sources
 
कैसे प्राप्त करें 
  1. मृदा समृद्धशीलता:- रासायनिक आदानों के प्रयोग को नकारते हुए अधिकाधिक फसल अवशेष का उपयोग, जैविक तथा जैव खाद  प्रयोग, फसल चक्र तथा बहुफसली प्रणाली को अपनाया जाना, मृदा को सदा जैविक पदार्थों या पौध अवशेषों  ढक कर रखना। 
  2. तापक्रम प्रबंधन:- मृदा को ढक कर रखना तथा खेत की मेड़ पर वृक्ष तथा झाड़ियाँ लगाना। 
  3. मृदा, जल को सुरक्षित रखना:- जल संधार गड्ढे खोदना, मेढ़ सीमा-रेखा का रख-रखाव करना, ढ़लवा भूमि पर कन्टूर खेती करना, खेत में तालाब बनाना तथा मेड़ों पर कम ऊचाई वाले वृक्षारोपण करना। 
  4. सौर ऊर्जा उपयोग:- विभिन्न फसलों के संयोजन तथा पौध रोपण कार्यक्रम के माध्यम से पुरे वर्ष हरियाली बनाये रखे। 
  5. आदानों में आत्मनिर्भर:- अपने बीज का स्वय विकास करें।  कम्पोस्ट,वर्मी-कम्पोस्ट, वर्मीवाश, तरल खाद तथा पौधों के सत / अक्र का फार्म पर उत्पादन करें। 
  6. प्राकृतिक चक्र तथा जीव स्वरूपों की रक्षा:- पक्षी व पौधों के जीवन यापन हेतु प्राकृतिक स्थान का विकास। 
  7. पशुधन समन्वय:- जैविक प्रबंधन में पशु एक महत्वपूर्ण अंग हैं जो पशु उत्पादक ही उपलब्ध नहीं कराते बल्कि मृदा को समृद्ध करने हेतु पर्याप्त गोबर तथा मूत्र भी उपलब्ध कराते हैं। 
  8. प्राकृतिक ऊर्जा उपयोग:- सौर ऊर्जा, बायों गैस, बैल चालित पम्प, जेनरेटर तथा अन्य यंत्र। 

How to Get
  1. Soil Richness:- The use of more and more crop residues, the use of organic and bio-manure, the adoption of crop cycle and multi-cropping system, always keeping the soil covered with organic matter or plant residues, negating the use of chemical inputs.
  2. Temperature Management:- Covering the soil and planting trees and shrubs on the ridge of the field.
  3. Soil, Water Conservation:- Digging water-logging pits, maintaining the rails boundary line, contour cultivation on sloping land, making ponds in the field and planting trees with low elevation on the rams.
  4. Solar Energy Use:- Through the combination of different crops and plant planting program, maintain greenery throughout the year.
  5. Self-sufficient in Inputs:- Develop your seed yourself. Produce compost, vermi-compost, vermi-wash, liquid manure and plant extracts on the farm.
  6. Protection of Natural Cycle and Organisms:- Development of natural place for living of birds and plants.
  7. Livestock Coordination:- Animals are an important part in biological management, which not only provide animal producers but also provide sufficient dung and urine to enrich the soil.
  8. Natural Energy Use:- Solar energy, left gas, bullock pump, generators and other equipment.
जैविक फार्म का विकास 

जैविक प्रबन्धन एक समविन्त प्रक्रिया हैं। एक या कुछ बिंदु अपना कर पर्याप्त परिणाम प्राप्त नहीं किये जा सकतें हैं। उपयुक्त उत्पादन हेतु सभी आवश्यक बिन्दुओं  क्रमबद्ध विकास की आवश्यकता हैं। ये अंग निम्न हैं:-

  1. जन्तु या पक्षी व पौधों के प्राकृतिक आवास का विकास व निर्माण। 
  2. आदानों के उत्पादन हेतु फार्म पर सविधाएँ। 
  3. फसल कम तथा फसल परिवर्तन योजना। 
  4. 3 से 4  वर्षीय फसल चक्र नियोजन। 
  5. जलवायु, मृदा व क्षेत्र की उपयुक्तता पर आधारित फसलों चयन।
Development of Organic Form 

Biological management is a cohesive process. Adequate results cannot be obtained by adopting one or a few points. All the necessary points need orderly development for proper production. These parts are: -

  1. Development and construction of natural habitat of animals or birds and plants.
  2. Facilities on the form for the production of inputs.
  3. Crop Reduction and Crop Change Scheme.
  4. 3 to 4 year crop cycle planning.
  5. Crops selection based on climate, soil and area suitability.

बीज उपचार 

जैविक प्रबन्धन में केवल समस्याग्रस्त क्षेत्रों / अवस्था में बचाव के उपाय किये जातें हैं। रोग रहित बीज तथा प्रतिरोधी प्रजातियों का प्रयोग सबसे अच्छा विकल्प हैं। यद्यपि अभी कोई भी मानक सूत्र उपचार विधि उपलब्ध नहीं हैं परन्तु ओशक विभिन्न विधियों का प्रयोग करते हैं।  कुछ अग्रणी किसानों के बीच उपचार सूत्र निम्न प्रकार हैं:- 
  • बीजोमृत 50 किलों गौ गोबर 50 मि.ली. गौ-मूत्र + 50 मि.ली. गाय का दूध + 2-3 ग्राम चूना एक लीटर पानी में मिलाकर पूरी रात रखतें हैं। इससे बीज उपचार काफी लोकप्रिय हैं। 
  • हींग 250 ग्राम / 10 किलों ग्राम बीज की दर से। 
  • हल्दी  पाउडर, गौ-मूत्र में मिलकर भी बीज उपचार हेतु प्रयोग किया जा सकता हैं। 
  • पंचगव्य सत 
  • दशपर्णी सत 
  • ट्राईकोडर्मा विरिडी 04 ग्राम / किलों बीज या स्यूसेडोमोनास 4 ग्राम / 1 किलों बीज 
  • जैव उर्वरक राइजोबियम / एजोटोबैक्टर + पी. एस. बी. 

तरल खाद निर्माण 

विभिन्न राज्यों के किसानो द्धारा अनेक प्रकार की तरल खाद प्रयोग की जा रही हैं। कुछ मह्रत्वपूर्ण वृहत रूप से प्रयोग किये जाने वाले सूत्रों का विवरण नीचे किया जा रहा हैं:- 


संजीवक:- 100 किलोग्राम गाय  गोबर + 100 लीटर गौ-मूत्र तथा 500 ग्राम गुड़ को 300 लीटर जल में मिलाकर 10 दिन हेतु सड़ने / गर्म होने दें।  20 गुना पानी मिलाकर एक एकड़ क्षेत्र में मृदा पर स्प्रे करें अथवा सिंचाई जल के साथ प्रयोग करें। 
Sanjivak:- Mix 100 kg cow dung + 100 liters of cow-urine and 500 grams jaggery in 300 liters of water and let it rot / heat for 10 days. Add 20 times water, spray on the soil in an acre area or use with irrigation water.
 
जीवामृत:- 10 किलोग्राम गाय का गोबर + 10 लीटर गौ-मूत्र + 2 किलोग्राम गुड़ + 1 किलोग्राम किसी दाल का आटा + 1  किलोग्राम जीवंत मृदा को 200 लीटर जल में मिलाकर 5-7 दिनों हेतु सड़ने / गर्म होने दें। 20 गुना पानी मिलाकर एक एकड़ क्षेत्र में मृदा पर स्प्रे करें अथवा सिंचाई जल के साथ प्रयोग करें। 
Jeevamrit:- 10 kg cow dung + 10 liter cow-urine + 2 kg jaggery + 1 kg dal flour + 1 kg lively soil mixed with 200 liters of water and allow it to rot / heat for 5-7 days. Add 20 times water, spray on the soil in an acre area or use with irrigation water. 

पंचगव्य:- गाय गोबर घोल 4 किलोग्राम + गाय गोबर 1 किलोग्राम + गौ मूत्र 3 लीटर + गाय दूध 3 लीटर + छाछ 2 लीटर + गाय घी 1  किलोग्राम को मिलाकर 7 दिन तक सड़ने दें। प्रतिदिन 2 बार हिलायें।  3 लीटर पंचगव्य को 100 लीटर पानी में घोलकर मृदा पर छिड़काव करें।  20 लीटर पंचगव्य सिंचाई जल के साथ एक एकड़ मृदा हेतु उपयुक्त हैं। 
Panchgavya:- Mix cow dung solution 4 kg + cow dung 1 kg + cow urine 3 liters + cow milk 3 liters + buttermilk 2 liters + cow ghee 1 kg and let it rot for 7 days. Shake 2 times daily. Dissolve 3 liters of Panchagavya in 100 liters of water and spray it on the soil. 20 liters of Panchgavya are suitable for one acre of soil with irrigation water. 

समृद्ध पंचगव्य:- 1  किलोग्राम ताजा गाय का गोबर + 3 लीटर गौ मूत्र + 2 लीटर गाय का दूध + 2 लीटर छाछ + 1 लीटर गाय का घी + 3 लीटर नारियल का पानी + 12 पके केलों की लुगदी मिलाकर 7 दिन तक सड़ने दें। प्रयोग विधि पंचगव्य  की भांति हैं। 
Enriched Panchgavya:- Mix 1 kg fresh cow dung + 3 liters cow urine + 2 liters cow milk + 2 liters buttermilk + 1 liter cow ghee + 3 liters coconut water + 12 ripe banana pulp and let them rot for 7 days. The method used is like Panchagavya. 
 
नाशी जीव प्रबंधन:- जैविक खेती प्रबंधन में रासायनिक कीटनाशकों का प्रयोग वर्जित हैं अतः नाशी जीव प्रबंधन प्रथमतया निम्न विधियों द्धारा किया जाता हैं। 

1- यांत्रिक क्रियाएँ   2- जैविक क्रियाएँ 

1:- यान्त्रिक क्रियाएँ:- १:- गर्मी के दिनों में खेत की गहरी जुताई 
                          २:- खेत के मेड़ों की सफाई की कार्य 
                                    ३:- फोरोमोन ट्रेप का प्रयोग किट नियंत्रण हेतु 

2:- जैविक क्रियाएँ:- १:- ट्राईकोडर्मा द्धारा बीज / पौध / जड़ का शोधन। 
                                           २:- कीड़ों के नियंत्रण हेतु विवेरिया वैसियाना या बी. टी. या ट्राईकोग्रामा कार्ड                                                   का प्रयोग। 
                                 ३:- फसल सुरक्षा हेतु नीम आयल का प्रयोग। 
                                 ४:- दीमक से बचाव हेतु विवेरियवैसियाना का प्रयोग करना चाहिए। 
 
Pesticide organism management:- The use of chemical pesticides is prohibited in organic farming management, hence pesticide management is primarily done by the following methods.

1- Mechanical actions 2- Biological activities

1:- Mechanical Activities:- 1: - Deep plowing of field in summer days
                                                        2:- The work of cleaning the rams of the farm
                                    3:- Use of Phormon Trap for kit control

2:- Biological activities:- 1: - Treatment of seed / plant / root by Trichoderma.
                                                  2: - Viveria vasiana or B.V. Use of T. or Trichogramma                                                             cards.
                                                            3: - Use of Neem Oil for crop protection.
                                                  4:- To protect against termites, one should use the virus.
  
जैविक नाशीजीव नाशकों का प्रयोग 

ट्राईकोडर्मा विरिडी या ट्राइकोडर्मा  हारजीऐनम  या स्यूडोमोनस 4 ग्राम/किलो बीज अकेले अथवा संयुक्त रूप से अधिकांश बीज जनित या मृदा जनित रोगों के नियंत्रण में प्रभावी हैं।  बाजार में उपलब्ध बवेरिया वैसिआना, मेटारीजियम एनिसपलीआई आदि विशेष नाशीजीव समुदाय का प्रबंधन कर सकतें हैं।  वैसिलस बैक्टीरिया के नाशीजीव नाशक कुछ अन्य किट जातियों के विरुद्ध प्रभावी हैं। 
 



वानस्पतिक कीटनाशक 

बहुत से वृक्ष कीटनाशी गुणों के कारण जाने  जातें हैं। ऐसे वृक्षों के पत्तियों / बीजों का सत / अक्र नाशिजीवों के प्रबंधन में प्रयोग किया जा सकता हैं।  अनेक प्रकार के वृक्ष व पौधे इस उद्देश्य से चिन्हित किए गए हैं जिनमे नीम सर्वाधिक प्रभावशाली पाया गया हैं। 
 


नीम 

नीम 200 नाशी जीव कीटों तथा सूत्रकृमियों में प्रभावी पाया जाता हैं। ग्रास होपर, लीफ होपर, प्लांट होपर, ऐफिड, जैसिड तथा मौथ, इल्ली  के लिए नीम अक्र व तेल बहुत प्रभावी हैं। नीम अक्र बीटल लार्वा, बटर फ्लाई, मौथ व कैटर पीलर जैसे कॉक्सिकन बीन बीटल, कोलोरेडो पुटेटो बीटल तथा डाइमंड बैंक मोथ के  लिए भी बहुत प्रभावी हैं। नीम ग्रास होपर, लीफ माइनर तथा लीफ होपर जैसे वैरिएगिटिड, ग्रास होपर, धान की हरी पत्ती का होपर तथा कपास का जैसिड नियंत्रण में भी बहुत प्रभावी हैं। बीटल, एफिड्स सफेद मक्खी, मिली बग, स्केल, कीट वयस्क बग गैमोट तथा स्पाइडर का प्रबन्धन भी नीम अक्र द्धारा किया जा सकता हैं। 



कुछ अन्य नाशी जीव प्रबंधन सूत्र 

बहुत से जैविक किसान तथा गैर सरकारी संगठनों ने बड़ी संख्या में अग्रणी सूत्र विकसित किए गए हैं जो विभिन्न नाशी जीवों के प्रबंधन हेतु प्रयोग किये जाते हैं। यध्यपि इन सूत्रों की वैज्ञानिक रूप में वैधता नहीं हैं, फिर भी उनका किसानों द्धारा बड़े पैमाने पर प्रयोग किया जाना उनकी उपयोगिता का धोतक हैं। किसान इन सूत्रों  का प्रयोग करने का प्रयास कर सकतें हैं, क्योकि ये बिना क्रय के उनके खेत पर ही तैयार किये  जा सकते हैं। कुछ लोकप्रिय सूत्र निम्न प्रकार से सूचीबद्ध किये गए हैं:-


  • गौ-मूत्र:- एक लीटर गौ-मूत्र 20 लीटर पानी में मिलाकर पर्णीय छिड़काव से अनेक रोगाणुओं तथा कीटों के प्रबंधन के साथ-साथ फसल वृद्धि नियामक का कार्य भी होता हैं। 
  • Cow-urine:- Spraying of foliar spray with one liter cow-urine mixed with 20 liters of water is the task of managing many germs and pests as well as crop growth regulator.

  • सड़ा हुआ छाछ पानी:- मध्य भारत के कुछ भागों में सड़ा हुआ छाछ पानी, सफेद मक्खी, एफिड आदि के प्रबंधन हेतु भी प्रयोग किया जाता हैं।
  • Rotten buttermilk water:- In some parts of central India, rotten buttermilk is also used for the management of water, white fly, aphid etc. 




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लेखक :- ए. पी. सिंह M.Sc. agronomy (www.agriculturebaba.com)  
सहायक :- लिनी श्रीवास्तव  M.Sc.(Agronomy) 

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